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प्रेम के सोपान
सबसे पहले आदमी केवल तभी प्रेम करता है जब उससे प्रेम किया जाता हे ।
फिर, आदमी सहज रूप से प्रेम करने लगता है, लेकिन बदले में प्रेम पाना चाहता है । फिर प्रेम पाये बिना भी प्रेम करता है लेकिन फिर भी वह अपने प्रेम की स्वीकृति की चाह रखता हे ।
और अन्त में, शुद्ध और सरल रूप से प्रेम करने के आनन्द के सिवाय और दूसरी किसी आवश्यकता के बिना प्रेम करता है । १५ अप्रैल, १९६६ *
एक ऐसा प्रेम होता है जिसमें भाव अधिकाधिक ग्रहणशीलता और बढ़ते हुए ऐक्य के साथ ' भगवान् ' की ओर मुड़ता है । उसे 'भगवान्' से जो मिलता है उसे वह औरों पर सचमुच कोई बदला चाहे बिना उंडेल देता है । अगर तुममें वह योग्यता हो तो यह प्रेम करने का उच्चतम और सर्वाधिक सन्तुष्टिदायी तरीका है ।
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तुम उस प्रेम से खुश नहीं होते जो कोई और तुम्हारे लिए अनुभव करता है । तुम्हें औरों के लिए जो प्रेम अनुभव होता है वह तुम्हें सुखी बनाता है; क्योंकि जो प्रेम तुम औरों को देते हो वह तुम्हें भगवान् से प्राप्त होता है और भगवान् अविरत और बिना चूके प्रेम करते हैं । २० मार्च, १९६७
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प्रेम ने धरती पर, मानव चेतना में जितने रूप लिये हैं वे सब सच्चे 'प्रेम' को पुन: पाने के भद्दे, विकृत और अपूर्ण प्रयास हैं । २३ मार्च, १९६७ *
१३४ सच्चे प्रेम को आदान-प्रदान की कोई जरूरत नहीं होती, कोई आदान-प्रदान हो ही नहीं सकता क्योंकि 'प्रेम' केवल एक ही है, एकमात्र 'प्रेम' , जिसका प्रेम करने के सिवाय कोई लक्ष्य ही नहीं है । विभाजन के जगत् में आदान-प्रदान की जरूरत मालूम होती है क्योंकि आदमी 'प्रेम' की बहुलता के भ्रम में रहता है लेकिन वस्तुत: केवल 'एक ही प्रेम' है और कहा जा सकता है कि हमेशा यही एकमात्र प्रेम अपने-आपकों प्रत्युत्तर देता है । १९ अप्रैल, १९६७
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वस्तुत: केवल एक ही ' प्रेम' है--वैश्व और शाश्वत, उसी तरह जैसे 'चेतना' एक ही है-वैश्व और शाश्वत ।
प्रत्यक्ष दीखने वाले सभी अन्तर व्यक्तीकरण और मानवीकरण द्वारा चढ़ाये गये रंग हें । लेकिन ये हेर-फेर बिलकुल ऊपरी होते हैं । और 'चेतना' की तरह 'प्रेम' की ''प्रकृति'' अपरिवर्तनशील है । २० अप्रैल, १९६७ *
जब तुम 'भागवत प्रेम' को पा लेते हो तो तुम सभी सत्ताओं में भगवान् से ही प्रेम करते हो । तब कोई और विभाजन नहीं रह जाता । १ मई, १९६७
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एक बार तुम 'भागवत प्रेम' को पा लो तो बाकी सब प्रेम जो, छद्मवेशों के सिवा कुछ नहीं हैं अपनी विकृतियों को छोड़कर शुद्ध हो जाते हैं और तब तुम हर व्यक्ति में, हर चीज में केवल भगवान् से ही प्रेम करते हो । ६ मई, १९६७ *
'सच्चा प्रेम' जो तुष्टि देता और आलोकित करता है, वह नहीं है जिसे तुम पाते हो, बल्कि वह है जो तुम देते हो ।
१३५ और 'परम प्रेम' ऐसा प्रेम है जिसका कोई निश्चित लक्ष्य नहीं होता, वह ऐसा प्रेम है जो प्रेम करता है क्योंकि वह प्रेम करने के सिवा कुछ कर ही नहीं सकता । १५ मई, १९६८
* प्रेम केवल एक ही हे-'भागवत प्रेम'; और उस 'प्रेम' के बिना कोई सृष्टि न होती । सब कुछ उसी 'प्रेम' के कारण विद्यमान है । और जब हम अपने निजी प्रेम को खोजते हैं जिसका कोई अस्तित्व नहीं तब हम 'प्रेम' का अनुभव नहीं करते; उस एकमात्र 'प्रेम' का जो 'भागवत प्रेम' है और समस्त सृष्टि में रमा हुआ है । ५ मार्च, १९७०
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जब चैत्य प्रेम करता है तो वह 'दिव्य प्रेम' के साथ प्रेम करता है ।
जब तुम प्रेम करते हो तो तुम अपने अहं द्वारा घटाये और विकृत किये गये 'भागवत प्रेम' के साथ प्रेम करते हो, लेकिन फिर भी तत्त्व में वह 'भागवत प्रेम' ही रहता है ।
भाषा की सुविधा के लिए तुम इसका प्रेम या उसका प्रेम कहते हो, लेकिन वह एक ही 'प्रेम' है जो विभिन्न मार्गों द्वारा अभिव्यक्त होता है ।
तुम बरसों से जिस 'प्रेम' को पाना चाह रहे हो उसे पाने का संकेत मैंने तुम्हें दे दिया है; लेकिन यह मानसिक संकेत नहीं है, और जब तुम्हारा मन नीरव हो जायेगा केवल तभी तुम इसका अनुभव कर सकते हो जो मैं तुमसे कहना चाहती हूं ।
आशीर्वाद । १४ मार्च, १९७०
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रही बात सच्चे प्रेम की, तो यह वह 'भागवत शक्ति' है जो चेतनाओं को भगवान् के साथ एक होने को प्रेरित करती है । २२ मई, १९७१ *
१३६ सच्चा प्रेम अपनी तीव्रता में बहुत गभीर और अचंचल है; यह भी हो सकता है कि वह किन्हीं भी बाहरी संवेदनात्मक और स्नेहपूर्ण क्रियाओं में अभिव्यक्त न हो ।
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'भागवत प्रेम' सच्चा प्रेम अपना आनन्द और सन्तोष स्वयं में ही पा लेता है; उसे ग्रहण किये जाने या प्रशंसा पाने या उसमें हिस्सा बंटाये जाने की कोई आवश्यकता नहीं--वह प्रेम के लिए प्रेम करता है, जैसे फूल खिलता है ।
इस प्रेम को अपने अन्दर अनुभव करना अक्षय सुख पाना है । २१ जून १९७१
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प्रेम और काम-वासना
प्रेम लैंगिक सम्भोग नहीं है । प्रेम प्राणिक आकर्षण और आदान-प्रदान नहीं है । प्रेम स्नेह के लिए हृदय की भूख नहीं है ।
प्रेम 'एकमेव' से आया शक्तिशाली स्पन्दन है और केवल बहुत शुद्ध और बहुत मजबूत व्यक्ति ही उसे पाने और अभिव्यक्त करने के योग्य होते हैं ।
पवित्र होने का अर्थ है और किसी के नहीं केवल 'परम प्रभु' के प्रभाव के प्रति खुलना ।
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१३८ मैं नहीं चाहती कि प्रेम शब्द का काम-वासना के लिए प्रयोग करके उसे दूषित किया जाये, यह तो मनुष्य को पशु से विरासत में मिली है ।
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तुम मातृभाव को जो, भौतिक में वैश्व 'जननी' की शक्ति की अभिव्यक्ति होती है ओर प्रजनन की भौतिक क्रिया को बहुत मिलाजुला दे रहे हो । यह पूरी तरह से पाशविक चीज है ओर बहुधा कुत्सित भी होती है, और यह केवल एक तरीका है जो 'प्रकृति' को विभिन्न जातियों को बनाये रखने के लिए मिला है । ६ अक्तूबर, १९५२
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लैंगिक सम्बन्ध अतीत के हैं, जब मनुष्य भगवान् की अपेक्षा पशु के अधिक निकट था । सब कुछ इस पर निर्भर है कि तुम जीवन से किस चीज की आशा रखते हो, लेकिन अगर तुम सचाई के साथ 'योग' करना चाहते हो, तो तुम्हें सभी लैंगिक क्रियाओं से दूर रहना चाहिये । २३ मार्च, १९६८
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जाति को वैसी बनाये रखने के लिए जैसी कि वह है, अपने शरीर को प्रकृति के प्रयोजन का अनुसरण करने के लिए सौंप देना और इसी शरीर को नयी जाति के सृजन के लिए एक सोपान बनाना, इन दोनों में से निर्णायक चुनाव करना होगा । दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते; हर क्षण तुम्हें निश्चय करना होगा कि तुम बीते कल की मानवता में बने रहना चाहते हो या आने वाले कल की अतिमानवता के सदस्य बनना चाहते हो ।
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किसी ने कहा है ''सेक्स मन का विषय है । क्रिया की कोई समस्या नहीं । सेक्स हमारे लिए एक समस्या है क्योंकि हम पर्याप्त रूप में सृजनात्मक नहीं हैं '' १३९ सेक्स केवल मन बल्कि प्राणिक भौतिक सत्ता की चीज भी क्या ? मूलरूप यथार्थता में वह क्या ? और सत्ताओं से स्त्री-पुरुष के इस आकर्षण को तरह से केले मिटाया जा सकता है ?
मुझे सेक्स अधिकतर शरीर का लगता है । तुम इस चीज को पूरी तरह तभी मिटा सकते हो जब निम्न गोलार्द्ध से निकलकर उच्चतर में पहुंच जाओ । सेक्स 'प्रकृति' की निचली गतिविधियों की चीज है और जब तक तुम उस 'प्रकृति' में बने रहोगे, ये गतिविधियां तुम्हारे अन्दर यान्त्रिक रूप से चलती रहेंगी ।
इस समय मैं सेक्स की कठिनाई से बहुत ज्यादा परेशान हूं । मेरा परित्याग अधिक मूल्य नहीं रखता और में उलझा हुआ-सा रहता हूं ।
जब तक वह सबल न हो जाये तुम्हें लगे रहना होगा । १९३३ *
जब तुम सेक्स के बारे में बिलकुल न सोचोगे और नारी को नारी के रूप में नहीं बल्कि मानव सत्ता के रूप में देखोगे, तभी और केवल तभी मैं समझूंगी कि तुम स्वस्थ होने लगे हो ।
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काम-वासना अच्छा खाने से नहीं, गलत सोचने और उस पर एकाग्र होने से आती है । तुम उसके बारे में जितना कम सोचो उतना ही अच्छा । तुम जो नहीं चाहते उस पर नहीं उसके विपरीत जो होना चाहते हो उस पर एकाग्र होओ । ७ जून, १९६४ *
१४० कामावेगों के अधीन होने की जगह उन्हें उच्चतम संकल्प के अधीन रखना चाहिये ।
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आवेश : यह एक शक्ति है लेकिन है भयंकर और जब तक वह पूरी तरह भगवान् को अर्पित न हो तब तक उसका उपयोग नहीं किया जा सकता ।
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मानव आवेशों का भगवान् के लिए प्रेम में परिवर्तन : भगवान् करे वे वास्तविक तथ्य बन जायें और उनकी प्रचुरता जगत् की रक्षा करेगी ।
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'भगवान्' के लिए पूर्ण आसक्ति प्राणिक आकर्षणों और आवेशों का स्थान ले लेती है ।
'भगवान्' के लिए प्रेम
लोभ लोभ, हमेशा लोभ... यह जड़-भौतिक प्रकृति का प्रत्युत्तर है । भगवान् उसमें चाहे जिस तरीके से प्रकट हों, वे लोलुपता का विषय बन जाते हैं । अपने हाथ में कर लेने की लोलुपता, लूट लेने का प्रयास, शोषण करना, निचोड़ लेना निगल जाना और अन्त में भगवान् को कुचल डालना--भागवत स्पर्श के प्रति जड़-भौतिक की यही ग्रहणशीलता है ।
हे 'प्रभो', 'तू' मुक्तिदाता बनकर आता है और लोग 'तुझसे' छल-कपट करते हैं , 'तू' ऐक्य के लिए आता है, रूपान्तर के लिए आता है, सिद्धि के लिए आता है, और लोग केवल अवशोषण और स्वार्थमयी वृद्धि के बारे में सोचते हैं । ९ मार्च, १९३२ *
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तुम्हें कभी थोड़े-बहुत से सन्तोष न होगा ।
संक्षेप में, तुम जो चाहते हो वह है स्वयं अपने लिए एक भगवान् जिनका तुम्हें सन्तुष्ट करने के सिवाय और कोई काम न हो, ऐसे भगवान् जिन्हें तुम रात-दिन किसी भी समय भौतिक रूप से देख सको, जिनके साथ तुम फुरसत के साथ वाद-विवाद कर सको, जिनके साथ तुम रह सको, विवाह कर सको--क्योंकि अपने आदर्श रूप में विवाह और कुछ नहीं, बस यही है ।
लेकिन ऐसा होने के लिए इन भगवान् को तुम्हारे अपने नाप का, अपने आकार का होना होगा ।
और ऐसे भगवान् तुम्हें हम जैसे हो उसकी ओर न ले जायें तो किस ओर ले जा सकते हैं ? क्या अपनी सत्ता के सत्य में तुम सचमुच यही चाहते हो ?
मैं इसे मानने से इन्कार करती हूं ।
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बालक, तुम मुझसे कहते हो ''मुझसे प्रेम करने का अर्थ है जो मैं चाहता हूं वही करना ।''
लेकिन मैं तुमसे कहती हूं कि भगवान् के सच्चे प्रेम का अर्थ है कि 'वे' जिससे प्रेम करते हैं उसके लिए अच्छे-से-अच्छा करना । मई, १९४६
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प्रत्येक व्यक्ति जब वह भगवान् की ओर मुड़ता है, तो इसी की मांग करता है कि 'उन्हें' ठीक वही करना चाहिये जिसकी वह मांग करे । जब कि भगवान् हर एक के लिए वही करते हैं जो उसके लिए सभी दृष्टिकोणों से उत्तम हो । लेकिन मनुष्य तो जब उसकी कामना सन्तुष्ट नहीं होती अपने अज्ञान और अन्धेपन में भगवान् के विरुद्ध विद्रोह करता है और 'उनसे' कहता है, ''तुम मुझसे प्रेम नहीं करते ।'' २८ मई, १९४६ *
१४२ तुम अपने भगवान् के बारे में कहते हो, ''मैंने 'उनसे' इतना प्यार किया है फिर भी 'वे' मेरे साथ नहीं रहते ! '' लेकिन तुमने 'उन्हें' किस प्रकार का प्रेम दिया है ? तत्त्वत: प्रेम एक ही है, ठीक उसी तरह जैसे चेतना एक है परन्तु अभिव्यक्ति में वह हर वैयक्तिक स्वभाव के द्वारा रंगा जाता है और भिन्न हो जाता है । अगर तुम अशुद्ध और अहंकारपूर्ण हो तो तुम्हारे अन्दर प्रेम भी अशुद्ध और अहंकारपूर्ण, कट्टर, सीमित, संकरा, महत्त्वाकांक्षी अधिकार जमाने वाला, उग्र, ईर्ष्यालु, गंवारू, पाशविक और क्रूर होता है । क्या इस प्रकार का प्रेम भगवान् को भेंट किया जा सकता है ? अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारा प्रेम तुम्हारे प्रेमपात्र के उपयुक्त हो, अगर तुम प्रेम का रस उसकी शाश्वत पूर्णता में लेना चाहते हो तो पूर्ण बनो, अपने अहंकार की सीमाओं को तोड़-फेंको, शाश्वतता में भाग लो और तब तुम हमेशा अपने प्रेमपात्र के निकट होगे क्योंकि तुम उनके जैसा बनते जाओगे । २७ नवम्बर, १९५२
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कहा जाता है कि तुम जिससे प्यार करते हो उसके जैसा बन जाते हो लेकिन भगवान् के बारे में यह भी सच है कि तुम 'उनके' साथ तभी हमेशा रह सकते हो जब 'उनके' जैसे बन जाओ ।
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तुम मानव प्रेम के द्वारा भगवान् से प्रेम करना नहीं सीख सकते, क्योंकि वह प्रेम और ही प्रकार का है । पहले अपने- आपको सच्चे निष्कपट भाव से भगवान् को देना सीखो उसके बाद प्रेम का आनन्द आयेगा । अपने-आपको सचाई के साथ देने से तुम्हारी सब कठिनाइयां गायब हो जायेंगी । २८ दिसम्बर, १९५५
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भगवान् के लिए सच्चा प्रेम है आत्मदान, जो मांगरहित, निवेदन और
१४३ समर्पण से भरपूर हो । वह कोई अधिकार नहीं जमाता, कोई शर्त नहीं रखता, कोई सौदेबाजी नहीं करता, ईर्ष्या, अहंकार या क्रोध की किसी उग्रता में रस नहीं लेता क्योंकि वह इन चीजों से बना ही नहीं ।
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जब सच्चा और पवित्र प्रेम हो (भगवान् का प्रेम और भगवान् के लिए प्रेम) तो जो कुछ भी हो, उसका उपयोग ऐक्य को बढ़ाने और उसे पूर्ण करने के साधन स्वरूप होता है । यह चिन्ता, पश्चात्ताप और अवसाद के लिए कोई जगह नहीं छोड़ता, इसके विपरीत चेतना को विजय की निश्चिति से भर देता है ।
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भगवान् के लिए सर्वांगीण प्रेम : शुद्ध, पूर्ण और अटल प्रेम, यह ऐसा प्रेम है जो अपने-आपको हमेशा के लिए दे देता है ।
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भगवान् के लिए प्रज्ज्वलित प्रेम : समस्त वीरता और पूर्ण आहुति के लिए तैयार ।
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भगवान् से सचमुच प्यार करने के लिए हमें आसक्तियों से ऊपर उठना चाहिये ।
सामान्य
प्रेम सभी के साथ है, समान रूप से हर एक की प्रगति के लिए काम कर रहा है--लेकिन यह विजयी उन्हीं में होता है जो इसकी परवाह करते हैं ।
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१४४ ('विश्व निरामिषभोजी संस्थान' के नाम सन्देश)
केवल प्रेम ही घृणा और हिंसा पर विजय पा सकता है ।
सदा और सभी परिस्थितियों में अपने द्वारा भागवत अनुकम्पा को अभिव्यक्त होने दो ।
भागवत अनुकम्पा केवल उसी तक नहीं पहुंचती जो खाया जाता है, बल्कि उस पर भी होती है जो खाता है, केवल उत्पीड़ित पर ही नहीं होती, उत्पीड़क पर भी होती है । १९५७
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'भागवत प्रेम' अशुभ और क्रूर पर विजय पा सकता है--बाघ योगी पर हमला नहीं करता ।
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अनभिव्यक्त 'भागवत प्रेम' : अद्भुत प्रेम की भव्यता जिसे भगवान् शुद्ध हृदय के लिए रखते हैं ।
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वस्तुत: समस्त जीवन प्रेम है, यदि तुम उसे जीना जानो । १३ जुलाई, १९६३
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प्रत्येक हृदय के अन्दर मधुरता है ।
कटुता है एक भ्रम जो 'भागवत प्रेम' के 'सूर्य' तले पिघल जाता है । जुलाई, १९६६
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